बाबा जैमल सिंह जी एक जगह फ़रमाते है कि मन को पकड़ने की युक्ति सतगुरु के वचन हैं, दूसरी युक्ति शब्द-धुन है, तीसरी धुन से प्रीति लगाना है और चौथी उसमें रस का प्राप्त होना है। फिर सतगुरु का स्वरूप मन में उतर जाता है। जैसे शीशे में अपना चेहरा ख़ूब अच्छी तरह से दिखायी देता है, उसी तरह सतगुरु के स्वरूप का चेहरा ज्यों का त्यों अन्तर में, मन में दिखाई देगा।
जब हर वक़्त मन की वृत्ति या तवज्जुह, जो सुरत का अंश है, रोज़-रोज़ भजन करने से निर्मल होती जायेगी और जब मन से कुल संसार की वासना निकल जायेगी, तब मन कभी बाहर की वृत्तियों के साथ नही जायेगा। केवल सतगुरु के स्वरूप में रहेगा। फिर सतगुरु उसे दया की दृष्टि से देखेंगे। जब सतगुरु की दया की दृष्टि उस पर पड़ेगी, तब मन के सब स्थूल विकार दूर हो जायेंगे और वह सुरत के द्वारा प्रीति करेगा। सूरत शब्द की धार- धुन-से प्रीति करेगी , फिर धुन सुरत को परखकर , अपने साथ मिलाकर थोड़ा- सा रस देगी।
बाबाजी के विचार :- मन में नम्रता, सेवा भाव से भजन सुमिरन में आसानी होती हैं
महाराज जगत जी फरमाते हैं
एक जगह महाराज जगत जी फरमाते हैं, कि रत्ती भर अभ्यास मन भर ज्ञान से कहीं अच्छा है। संतमत के सिद्धांतों का ज्ञान किस काम का, अगर उनके अनुसार हमारी रहनी ना हो। अमल और अभ्यास से रहित विद्वान उस पशु के समान है जिसकी पीठ पर किताबों का भार लदा हो। उपदेश देने से अभ्यास करना हजार गुना अच्छा है।
एक जगह महाराज जगत जी फरमाते हैं, कि रत्ती भर अभ्यास मन भर ज्ञान से कहीं अच्छा है। संतमत के सिद्धांतों का ज्ञान किस काम का, अगर उनके अनुसार हमारी रहनी ना हो। अमल और अभ्यास से रहित विद्वान उस पशु के समान है जिसकी पीठ पर किताबों का भार लदा हो। उपदेश देने से अभ्यास करना हजार गुना अच्छा है।
बाबाजी के विचार :- सच्चा नाम ही हमारे मन को निर्मल, पवित्र और पाक कर सकता है।
इसलिए संत महात्मा समझाते हैं कि हमें हर वक्त नाम का अभ्यास करना है। भजन सिमरन करना है। ताकि हमें इस मनुष्य जन्म का लाभ मिले और इस चौरासी की जेलखाने से छुटकारा हो जाए। हमें बार-बार इस नासवान संसार में ना आना पड़े। हम परमात्मा से मिलाप करके परमात्मा में समा जाएं।
|| राधास्वामी ||
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