सोमवार, 31 दिसंबर 2018

संतों के वचन आपको परमात्मा से मिला सकते हैं

बाबाजी अक्सर सत्संग में फरमाते है कि सत्संग में आपको अनुभवी बातों के बारे में बताया जाता है। जो संतों महात्माओं ने अनुभव किया है वही विचार आपके आमने रखते है। आपको किसी वक़्त के गुरु से वह रूहानी ताले की चाबी मिल सकती है। हमे हमेशा पूर्ण गुरु की संगति करनी चाहिए। क्योंकि पूर्ण गुरु ही आपको अपने निज धाम यानि परमात्मा से मिला सकता है।



बाबाजी फ़रमाते है
अगर आपको जब भी कहीं भी सत्संग मिलता है उसका हमेसा फायदा उठाना चाहिए, सत्संग से मनुष्य की सजा सुली से सुल हो जाती है, क्योंकिं सत्संग में एक पल भी बिताया है तो वो आपको रूहानियत के लिए बहुत ही सार्थक होगी। सत्संग से आपके घर - परिवार में अच्छा माहौल बनता है। घर में सुख और शान्ति का वास होता है। इससे आपके भजन-सुमिरन में मन लगता है।




भजन सुमिरन पर दें ध्यान
बाबाजी अक्सर बताते है कि जब भी आपको समय मिले वो पल उस परमात्मा का की याद में बिताना। कभी भी भजन सुमिरन को नही भूलना चाहिए। भजन ही आपको इस आवागमन से छुटकारा मिल सकता है। तो हमे भी चाहिए की ज्यादा से ज्यादा भजन-सुमिरन करे और चौरासी के जेलखाने से छुटकारा प्राप्त करें।


               ||  राधास्वामी   || 

रविवार, 30 दिसंबर 2018

नेक-कमाई परमात्मा की प्राप्ति का आसान रास्ता हैं।

सतों ने यह विचार भी बलपूर्वक प्रकट किया है कि परिश्रम का जाति-पाति से कोई संबंध नहीं है और कोई भी व्यवसाय छोटा या नीच नहीं है। जिस भी सदाचारपूर्ण कार्य के द्वारा हम ईमानदारी के साथ अपनी जीविका कमा सकें, वही अच्छा काम है और रूहानी तरक्की में हमारी सहायता करता है। इसीलिए संत महात्मा समझाते हैं कि नेक कमाई करो, हक हलाल की कमाई खाओ।


गुरु रविदास जी
ने 'सुकीरति' या नेक कमाई को इतना महत्व दिया है कि आपने सुकृत को ही सच्चा धर्म, सच्ची शांति का स्त्रोत और भवसागर से पार होने के लिए सरल तथा उत्तम साधन माना है। आप कहते हैं कि परमार्थ के प्रेमी को, श्रम को ही ईश्वर मानते हुए, नेक कमाई में लगे रहना चाहिए। ऐसा सुकृत, मनुष्य के रुहानी अभ्यास में सहायक होकर उसे प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर दृढ़ता पूर्वक चलने की प्रेरणा देता है।


आप जी स्पष्ट करते हैं
कि केवल श्रम ही काफी नहीं है, श्रम का नेक और पवित्र होना भी अत्यंत आवश्यक है। जिनके पास धर्म अथवा नीतिपूर्ण  'श्रमसाधना' (हक हलाल की कमाई ) और प्रभु भक्ति का दोहरा साधन  होता है, उनकी कमाई और उनकी साधना फलीभूत होती है और उनका जीवन सफल होता है।


दान अच्छा है
दान देना अच्छा है। अपनी कमाई में से औरों बाँटकर, उस कमाई का उपयोग करना अच्छा है, परंतु ऐसे दान तथा बांटने का आधार नेकी और ईमानदारी की कमाई होनी चाहिए। धोखे, इमानदारी या लूट की कमाई नहीं। इन सब बातों से भजन समझ में मन लगता है। इन सब बातों पर अमल करते हुए, हमें भजन सुमिरन पर ध्यान देना चाहिए।


                  || राधास्वामी ||


शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

परमात्मा की खोज अपने अंदर करो, बाहर नही। बाबाजी का कथन

जिस परमात्मा ने दुनिया की रचना की है, वह चौबीस घण्टे तुम्हारे साथ-साथ है।लेकिन हम दुनिया के जीव अपनी देह के अंदर जाकर कभी परमात्मा की खोज करने की कोशिश नही करते। 
हमेशा उसे या तो जंगलों और पहाड़ों में ढूँढने की कोशिश करते है या ग्रन्थों-पोथियों में पाना चाहते है या समझते है कि वह गुरुद्वारों, मंदिरों, मसजिदों या गिरजा-घरों में ही मिल सकता है। कभी विचार है कि वह आसमानों के पीछे छिपा बैठा है। लेकिन जिस जगह वह परमात्मा है, उस जगह तलास नही करते।

सच्चे मालिक के भक्त :-
जो मालिक की असली भक्त और प्यारे हैं। जिनको किसी संत-महात्मा की संगति मिल चुकी है। वह परमात्मा को शरीर या देह के अंदर ढूंढते हैं, बाकी सब दुनिया के जीव भ्रमों में फंसकर यहीं भूले फिरते हैं।


बाहर खोजना व्यर्थ है :-
हम पत्थर और ईटें इकट्ठी करके मस्जिद या मालिक के रहने की जगह बना लेते हैं और उसके ऊपर चढ़कर मौलवी ऊंची-ऊंची बांग देकर परमात्मा को पुकारता है। जैसे कि परमात्मा बहरा है और हमारी आवाज उस तक नहीं पहुंच सकती।


आप समझाते हैं :-
आप समझाते हैं कि ऐ मुल्ला! वह खुदा बहरा नहीं है, जिस खुदा के लिए तू इतनी जोर-जोर से से चिल्ला रहा है। वह तो तेरे अंदर ही मौजूद है। मुसलमान उस खुदा को मस्जिद के अंदर ढूंढ रहे हैं। हिंदू मंदिरों में उस परमात्मा की तलाश कर रहे हैं। सिख ईसाई गुरुद्वारा और गिरजो में जाकर खोज रहे हैं, लेकिन वह अलख पुरुष तो उनके शरीर के अंदर ही है और अंदर ही मिलेगा।

हमें भी चाहिए की मालिक के बताए अनुसार भजन-सुमिरन करें और मालिक की खोज अपने अंदर करें। परमात्मा को पाना है तो भजन सुमिरन पर जोर देना होगा।

                   ||राधास्वामी ||

बुधवार, 26 दिसंबर 2018

दान देने से भी कर्म बनते है।अहंकार आता है।

गुरुमत पूर्ण ज्ञानी सतगुरु के बताए मार्ग और आदेश पर चलने का नाम है।  यह सिद्धांत पूर्ण गुरु के शिष्य की संपूर्ण रहनी पर लागू होता है और दान-पुण्य आदि का विषय भी इसी में शामिल है।



दान ऐश का साधन नही
पंडित, पुरोहित, महंत, मुल्ला, पादरी तथा मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, सत्संग घरों आदि के प्रबंधक भी इस भ्रम का शिकार हो जाते हैं कि दान का धन ऐश, आराम और विलास का बहुत आसान साधन है। इस भावना को जितनी जल्दी त्याग दिया जाए, अच्छा है।




कबीर साहिब फरमाते हैं
कि गृहस्थ और दुनियादार लोग अनेक कामनाएं मन में रखकर दान देते हैं। साधु कहलाने वाले जो लोग समझते हैं कि वह इस इस पराया धन को हजम कर लेंगे वे अपने आप को धोखा दे रहे हैं।




दान देने का तरीका
दान विवेकपूर्वक देना चाहिए। ऐसे लोगों को दान देना उचित नहीं है, जो दान से प्राप्त धन को शराब आदि में खर्च करते हैं। ऐसा दान जीव के बंधन का कारण बनता है। परंतु परमात्मा की साथ अभेद हो चुके महात्माओं के सुझाव के अनुसार लोकहित में लगाया गया धन परमार्थ में सहायक होता है।


                || राधास्वामी ||

मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

धन-दौलत पापों के बिना इकट्ठे नहीं होती:- बाबाजी

संत महात्मा कहते हैं कि धन-दौलत पापों के बिना इकट्ठे नहीं होती और अतः समय साथ नहीं जाती। गुरु नानक साहिब फरमाते हैं कि लोग धन-दौलत इकट्ठा करने में खोए हुए हैं और इस बात पर विचार करने का यत्न नहीं करते कि वे पापों का ऐसा भारी बोझ इकट्ठा कर रहे हैं जो अनेक लोगों की रूहानी विनाश कारण बन चुका है और अब उनके विनाश का कारण बनेगा।



धन जो पाप के बिना इकट्ठा नहीं हो सकता, मृत्यु के बाद साथ नहीं जा सकता और प्रभु की दरगाह में दुर्दशा का कारण बनता हैं, वह हमारे लिए लाभदायक किस प्रकार हो सकता है?


गुरु अमरदास जी फरमाते हैं
कि राजा, शासकीय अधिकारी आदि धन के मोह के अधीन, परायी दौलत हथिया कर माया के विष का भंडार इकट्ठा कर लेते हैं। वास्तव में लोभ, लालच और माया उनको छल लेते हैं और अंत समय उन्हें यम के हाथों चोटें सहनी पड़ती है।




सच्चा गुरु कौन?
अगर कोई गुरु या पीर होकर शिष्यों से भीख मांगता फिरता है तो उसके पैरों पर कभी सिर नहीं झुकाना चाहिए। जो मेहनत करके अपनी रोजी कमाता हो और उसे हक-हलाल की कमाई में से साधसंगत की सेवा करता हो, वही परमार्थ की राह का सच्चा जानकार, सच्चा गुरु हो सकता है।




कबीर साहिब ने गुरु तथा शिष्य दोनों के लिए बहुत ऊंचा आदर्श स्थापित किया है। आप फरमाते हैं कि शिष्य को चाहिए कि अपना सब कुछ गुरु को अर्पण कर दे, अर्थात सब कुछ गुरु का समझ कर इस्तेमाल करें, परंतु गुरु को चाहिए कि शिष्य की सुंई को हाथ न लगाए, वहीं गुरु सच्चा गुरु हो सकता है।



                || राधास्वामी ||

सोमवार, 24 दिसंबर 2018

हक हलाल की कमाई से सुख और आनंद की प्राप्ति होती हैं

जो लोग सच्चे दिल से महसूस करते हैं कि सच्चा और स्थायी आनंद, नेक जीवन और प्रभु प्राप्ति में ही है। वे प्रसन्नतापूर्वक हक-हलाल की कमाई का नियम स्वीकार करते हैं। जो लोग आचरण की पवित्रता और आत्मिक आनंद से परिचित है या जो इसकी प्राप्ति के इच्छुक है, वे अनुचित ढंग से की गई कमाई का त्याग करते हैं। इस प्रकार की कमाई का त्याग उन्हें परमार्थरूपी हीरे-जवाहरात की प्राप्ति के लिए ईटों-पत्थरों की कुर्बानी के समान प्रतीत होता है।



भूखे की कभी भूख नही मिटती :-
परंतु जो लोग इस आनंद से अनजान है और जिन्हें इसे प्राप्त करने का कोई चाह नहीं है। उन्हें दुनिया की नाशवान भोग और धन-दौलत ही सब कुछ प्रतीत होते हैं। वे यह नहीं जानते कि यह भोग और अनुचित ढंग से कमाया गया धन लोक और परलोक दोनों में ही उनकी दुर्दशा का कारण बनता है। अतः मनुष्य को चाहिए कि जो कुछ अपनी हक-हलाल की कमाई से मिले उस पर संतोष करें तथा भोगों की लालच से बचे। धन की तृष्णा अग्नि के समान है जो लकड़ी डालने पर कभी भी शांत नहीं होती बल्कि और भडक उठती है। सारे संसार का धन भी लालची के मन की भूख को कभी नहीं मिटा सकता।


शनिवार, 22 दिसंबर 2018

शिष्य का कर्तव्य, सतगुरु का आदर करना

हमारी रूहानी उन्नति का असल अनुमान इस बात लगता है कि हमारा सतगुरु के साथ कैसे संबंध है। हममें से बहुत से लोग प्रेम को शरीर के स्तर पर नीचे खींच लाये हैं और इसके परिणाम स्वरूप हमने यह सोचना शुरू कर दिया है कि दिव्य-प्रेम के अनुभव के लिए हमारा सतगुरु के साथ देह-स्वरूप के पास रहना बहुत जरूरी है।


हम यह भी सोचना शुरू कर देते हैं कि हमारे लिए जिंदगी की हर काम में सतगुररु से दिशा-निर्देश या अगवाई प्राप्त करना जरूरी है। इस प्रकार के विचार सतगुरु के वास्तविक कर्तव्य के बारे में गलतफहमी से उत्पन्न होते हैं। सतगुरु का काम हमारी जिंदगी की समस्याएं हल करना नहीं है। यह काम हमें स्वयं करना है।

महाराज चरन सिंह
शिष्य को संतमत समझाकर, उसे इस मार्ग पर लगाकर और उसके अंदर शब्द या नाम के प्रति प्रेम पैदा करके देह-स्वरूप का गुरु का कार्य पूरा हो जाता है। इसके बाद देह-स्वरूप के प्रेम को शब्द या नाम के प्रेम में बदलना जरूरी है, क्योंकि हमें दुनिया और शरीर से खींचकर परमात्मा के साथ मिलने का काम शब्द या नाम ही करता है।


सभी संत-महात्मा एक ही सत्य पर जोर देते हैं। असल सतगुरु शब्द है। आन्तरिक दर्शन ही सच्चे दर्शन है। सत्य अंदर है। संतमत शिष्य को परम सत्य की मंजिल तक पहुंचा सकता है, पर उस मंजिल तक पहुंचने के लिए शिष्य को आन्तरिक सफ़र स्वयं करना पड़ता है। सतगुरु सत्य की ओर इशारा करते हैं। सत्य की प्राप्ति का मार्ग बता सकते हैं, पर उनका सत्य का अनुभव हमारी कमी पूरी नहीं कर सकता। उस मंजिल तक पहुंचने का हमारा अपना कर्तव्य बनता है।


अगर सतगुरु की नजदीकी चाहते हैं तो भजन सुमिरन करना जरूरी है। यह सोचना कि हम बार-बार डेरे जाकर या जहां-कहीं सतगुरु जायें, उनके पीछे-पीछे जाकर उनकी नजदीकी प्राप्त कर सकते हैं, अपने आपको धोखा देना है। क्योंकि सतगुरु के साथ वास्तविक रिश्ता आंतरिक ऊंचे मंडलों में ही स्थापित होता है। भजन-सिमरन की बिना रिश्ते में गहराई और परिपक्वता नहीं आती। इसलिए हमें चाहिए कि ज्यादा से ज्यादा समय भजन सिमरन को दें और रूहानी सफर को तय करें।

                    ||  राधास्वामी  ||

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

बाबाजी ने जब संसार के बारे में बताया तो..

बाबाजी हमेशा सत्संग में समझाते हैं कि इस दुनिया में हम कभी सुख और शांति प्राप्त नहीं कर सकते। यह जो थोड़े बहुत सुख नजर आ रहे हैं, समय पाकर दुखों में बदल जाते हैं। 


महात्मा हमें अपने अनुभव से समझाते हैं कि जब तक हमारी आत्मा परमात्मा से नहीं मिल जाती, जब तक हम कभी सुख और शांति प्राप्त नहीं कर सकते। संसार की धन-दौलत और शक्लों से हम कभी सुख और शांति प्राप्त नहीं कर सकते। जब तक हमारा ख्याल मालिक की भक्ति की ओर नही जायेगा जब तक हम दुखों का सामना करते रहेंगे।


महाराज सावन सिंह
जिस जगह पर मन और माया का जोर है, वहां शांति कभी रह ही नहीं सकती। देश, जाति और इंसान के झगड़े और दु:ख यहां बने ही रहेंगे। आत्मा को शांति पाने के लिए दूसरे मंडलों की खोज करनी होगी। शांति की खोज करना इंसान का काम है। हर एक इंसान को अपने अंदर खोजना होगा।




शांति की प्राप्ति के लिए सही मार्ग की खोज करना, अपने आत्मिक अस्तित्व में विश्वास प्रकट करना है। हर प्रकार का बाहरी संघर्ष और बाहरी अशांति वास्तव में आंतरिक संघर्ष और आंतरिक अशांति का ही प्रकटन है। संत-महात्मा समझाते हैं कि हम संसार को दु;खों से मुक्त करके एक आदर्श स्थान तो बना नहीं सकते पर अपना सुधार या बदलाव अवश्य कर सकते हैं। हम भजन सुमिरन द्वारा धीरे-धीरे अपना रुहानी स्तर ज़रूर ऊंचा उठा सकते हैं।




इसलिए हमें भी चाहिए कि बाबाजी की बताई गई बातों पर अमल करें और संसार की मोह माया से थोड़ा सा दूरी बनाकर भजन-सुमिरन पर अपना ध्यान लगाना चाहिए। क्योंकि यही एक सही समय है, उस परमात्मा को पाने का। इसके बाद आपको ऐसा समय कभी नहीं मिलेगा। बाबा जी की बातों पर अमल करेंगे, भजन सुमिरन करेंगे, तो हम इस चौरासी के जेल खाने से पार हो जायेंगे।

                     || राधास्वामी ||

गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

गुरमुख और मनमुख में अंतर, बाबा जी ने समझाया

संत हमेसा सत्संग पर जोर देते हैं, क्योंकि सत्संग में जाने से यह हमें पता चलता है कि मनमुख और गुरमुख में क्या फर्क है।  गुरमुख केवल गुरू की बातों पर अमल करते हैं। और मनमुख लोग केवल मन के कहे में चलते हैं। मनमुख दुनिया की इच्छाओं में फंसे रहते  हैं। हमें केवल गुरु के हुकुम में चलना है।


मनमुख लोगों की सोच :-
मन मुख लोग हमेशा भूखे रहते हैं। परमात्मा उन्हें जो चाहे चीजें बख्श दें, कितनी ही नेक संतान हो, धन-दौलत हो, दुनिया में मान इज्जत और पढ़ाई हो, सेहत हो लेकिन वे फिर भी कभी परमात्मा से परमात्मा को नहीं मांगते। वह हमेशा परमात्मा से अपनी दुनिया की इच्छाएं और तृष्णाऐं पूरी करवाना चाहते हैं। वे लोग हमेशा दुनिया के पदार्थों और शक्लों की और ही भागते हैं।

गुरु अमरदास जी समझाते हैं
कि ऐसे लोगों की कभी भूले-भटके भी संगति नहीं करनी चाहिए। बल्कि उनसे लाखों कोस दूर रहना चाहिए। फिर किस की संगति करनी चाहिए? आप जी उपदेश देते हैं। हे परमात्मा! संतों-महात्माओं की संगति ओर सोहबत दे, ताकि तेरा पता चले, तेरी तरफ हमारा ख्याल जाये।


महात्मा हमेशा सत्संग पर जोर देते हैं, क्योंकि संतों के सत्संग में जाकर ही पता चलता है कि आत्मा और परमात्मा का रिश्ता क्या है, आत्मा और परमात्मा के दरमियान रुकावट किस चीज की है, और वह रुकावट हमारे अंदर से किस तरह दूर हो सकती है। महात्मा सत्संग उनको नहीं कहते जहां एक-दूसरे की निंदा करते हो।  या जहां पुराने राजा-महाराजाओं की कहानियां सुनाई जाती हो। संतो महात्माओं के सत्संग में किसी की निंदा नहीं की जाती, वहां पर केवल सिर्फ मालिक से मिलने का शौक और प्यार पैदा करते हैं। और हमें मालिक से मिलने का सही रास्ता, तरीका और साधन बताते हैं।

बाबाजी इन बातों को भी पढें :- अगर इसको नही पढ़ा तो सब अधूरा ही समझो

इसलिए हमें भी सत्संग में जाना चाहिए। गुरु की बताई गई बातों पर अमल करना चाहिए। भजन सिमरन करना चाहिए ताकि मनुष्य जन्म का लाभ उठा सकें और इस आवागमन के चक्कर से छुटकारा हो सके।

                   || राधास्वामी ||

बुधवार, 19 दिसंबर 2018

ये सबसे अच्छा आसन है, भजन सुमिरन के लिए। पढें

अभ्यास करते समय सुखद आसन में बैठकर रीढ़ की हड्डी और गर्दन को सीधा रखना जरूरी है। ठोड़ी अगर थोड़ी सी अंदर की ओर हो तो बेहतर है। सिर न अधिक नीचे की ओर झुका होना चाहिए और न बाहर की ओर, क्योंकि इन दोनों अवस्थाओं में नींद आने का डर होता है। बिल्कुल सही अवस्था में बैठना चाहिए। शरीर में कोई तनाव नहीं होना चाहिए और पूर्णतया आरामदायक आसन में बैठना चाहिए, ताकि भजन सुमिरन में ध्यान लगे।


बाबा जी फरमाते हैं :-
अभ्यास में शरीर और मन दोनों शामिल होते हैं। अगर अभ्यास में सहायक सुखद आसन नहीं अपनाएंगे तो अभ्यास में बाधा पड़ेगी। इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि सीधे और सावधान होकर बैठे और शरीर पूरी तरह अडोल रहे। इससे ने केवल अभ्यास में सहायता मिलती है, बल्कि इसका स्वास्थ्य पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है।




जिस प्रकार हिल रहे गिलास में पड़ा पानी स्थिर नहीं रह सकता, उसी प्रकार अगर शरीर बार-बार हिलता रहे तो मन भी शांत और स्थिर नहीं हो सकता। शरीर को अडोल रखने से मन को स्थिर रखने में सहायता मिलती है। इसलिए अभ्यास के लिए ऐसा आसन अपनाना चाहिए, जिसमें बिना कष्ट के आराम के साथ बिना हिले-डुले बैठ सकें। जिससे हमारा ध्यान बने, ठीक से सुमिरन हो सकें



एकाग्रता :-
भजन-सुमिरन द्वारा हम अपने ध्यान को यहां आंखों के बीच में ठहराने की कोशिश करते हैं, ताकि यह नीचे इन्द्रियों की ओर न जाये। मन को आंखों के बीच में स्थिर करना तथा उसे नीचे न गिरने देना ही एकाग्रता है। इसलिए हमें भी चाहिए कि एक अडोल आसन लगाकर मन को स्थिर करें और अपने भजन सुमिरन पर जोर दें।


                    || राधास्वामी ||

मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

अगर इसको नही पढ़ा तो सब अधूरा ही समझो

संत महात्मा हमेशा समझाते आए हैं सिमरन और ध्यान कि हमें कुदरती आदत पड़ी हुई है। इसलिए इस कुदरती आदत से फायदा उठाओ। दुनिया के सिमरन और ध्यान के स्थान पर मालिक के नाम का सिमरन और ध्यान करो। क्योंकि सिमरन को सिमरन काटेगा और ध्यान को ध्यान काटेगा। पानी की मारी हुई खेती पानी से ही हरी भरी होती है। 


दुनिया की नाशवान चीजों का सिमरन करके हम उनसे मोहब्बत किये बैठे हैं। उनमें से कोई भी चीज जो हमारा साथ देने वाली नहीं है। उनका मोह या प्यार हमें बार-बार देह के बंधनों की ओर ले आता है। हमें चाहिए कि उस मालिक के नाम का सिमरन और ध्यान करें जो कभी फ़ना नहीं होता, जिसकी हमारी आत्मा अंश है और जिसके अंदर वह समाना चाहती है।


बाबा जी समझाते हैं :-
यह हमारा मन जो विषयों-विकारों में, दुनिया के मोह या प्यार में फंसकर हिरण की तरह भटकता फिरता है। जब यह राम नाम या शब्द के साथ जुड़ जाता है तो हमेशा के लिए बिंध जाता है। इसके अलावा और कोई विचार करना या इस मन को वश में करने का कोई और उपाय करना व्यर्थ है। सिर्फ सच्चे शब्द या सच नाम की कमाई करके ही हमारा मन निर्मल, पवित्र और पाक हो सकता है। सच्चे शब्द की कमाई करके ही हम चौरासी के दुखों से बच सकते हैं।


महाराज चरण सिंह
संतमत में ऐसी कोई भी खास प्रार्थनाएं नहीं है जिन्हें आप दिन में चार या पांच बार दोहरा लें। प्रार्थना के लिए शब्दों या भाषा की जरूरत नहीं है। प्रार्थना तो प्यार की भाषा है जो हमारे हृदय से प्रभु तक जाती है। प्रार्थना के समय आपके और मालिक के बीच में कोई दूसरा नहीं होता। जब आप प्रार्थना करते हैं तो संसार को भूल जाते हैं; मालिक रहता है और आप होते हैं। यही सच्ची प्रार्थना है, और यह प्रार्थना केवल भजन के द्वारा ही संभव होती है। जब हम यह भूल जाते हैं कि हम कौन हैं और कहां है। यहीं सच्ची प्रार्थना है।

                    || राधास्वामी ||

सोमवार, 17 दिसंबर 2018

बाबा जी की इन बातों पर करें अमल, हो जाएगा उद्धार।

हम दुनिया के जीव् हमेशा, दिन-रात पेट के धंधों की खातिर भटकते रहते हैं और उस लक्ष्य के बारे में कभी नहीं सोचते, जिसके लिए मालिक ने हमें यहां भेजा है। हमारी अपने घर में आग लगी हुई है और हमें लोगों की आग बुझाने की फिक्र लगी हुई है। अपना घर लूटा जा रहा है, हम दूसरों के घरों की चौकीदारी कर रहे हैं। हम अपना बोझ उठा नहीं सकते, पराये गधे बने बैठे हैं। अपने आप को भी धोखा दे रहे हैं और दुनिया को भी धोखा दे रहे हैं। हम कितने मनमुख, मुगध और गंवार हैं कि अपने मरण-जन्म को भी भूले बैठे हैं



कबीर साहिब फरमाते हैं :-
राम पदारथु पाई कै कबीरा गांठि न खोल्ह।।
नही पटणु नही पारखु नही गाहकु नही मोलु।।


कबीर जी फरमाते हैं उस नाम रूपी दौलत को प्राप्त करके उसे अपने अंदर इतना दबाकर रखो कि उसकी खुशबू तक बाहर न जाये, क्योंकि न तो दुनिया में कोई उसका अधिकारी है, न किसी को खोटे और खरे की पहचान है और न ही उसका कोई ग्राहक है और न ही उसकी कोई कीमत देने को तैयार है। लोग तो बेटे-बेटियों के ग्राहक हैं। धन-दौलत के अभिलाषी हैं। वे उस नाम रूपी दौलत की कीमत देने को तैयार नहीं। उसकी कीमत क्या देनी पड़ती है? अपने आपको ही मालिक के हवाले करना पड़ता है, जिस हाल में भी वह मालिक रखे उसी हालत में रहते हुए नाम की कमाई करनी पड़ती है।


क्या आपने यह पढ़ा हैं :- इसको पढ़ोगे तो पार हो जाओगे


नाम की महत्वता :-
हमने दुनिया के सब रसायनों को देख लिया, मगर नाम के बराबर कोई रसायन नहीं है। उसकी एक रत्ती भी अगर शरीर में रच जाए तो हमारा शरीर सोना हो जाता है। मतलब इस शरीर में आने का उद्देश्य पूरा हो जाता है।




हमें भी चाहिए कि संत महात्माओं के विचारों पर अमल करें। उनसे ज्ञान प्राप्त करें और अपने व्यवहार को नम्र बनाएं। और इस मनुष्य जन्म का लाभ उठाएं, हर रोज बिना नागा भजन सिमरन करना चाहिए। ताकि इस मनुष्य जन्म का उद्देश्य पूरा हो जाये।


                    || राधास्वामी ||

शनिवार, 15 दिसंबर 2018

इस सत्संग में बाबा जी ने क्या बताया? कि संगत चौक गई, पढ़ें

परमात्मा एक है। और जितनी भी जीव इस धरती पर है, ब्रह्मांड में है। सब उस परमात्मा ने ही बनाया है। कण-कण में परमात्मा विराजमान है। बस हमारे सोचने का, देखने का नजरिया अलग है। परमात्मा हर एक जीव के अंदर है। संत समझाते हैं कि जितना हम दूसरे के साथ प्रेम, प्यार बना कर रखेंगे। परमात्मा उतना ही हमारे नजदीक होंगे।


फरमाते है :-
हे परमात्मा! सब दुनिया के जीव तूने आप पैदा किए हैं। बुरे भी तूने पैदा किए हैं और अच्छे भी तूने ही बनाए हैं और तू खुद ही दोनों को परखने बैठ गया है कि कौन अच्छा है कौन बुरा। जिनको तो खुद अपनी परख के काबिल बना लेता है, उनको तो अपने खजाने में दाखिल कर लेता है। बाकी सब भ्रमों में फंसकर यही यही भूले हुए हैं।




परमात्मा की दया मेहर :-
अब सवाल पैदा हुआ कि परमात्मा दया मेहर किस प्रकार करता है? परमात्मा जब भी दया मेहर करता है। संतों महात्माओं के जरिए ही करता है। बल्कि खुद इंसान के जामें में बैठकर हमारे अंदर अपने मिलने का शौक और प्यार पैदा करता है। हमसे अपनी भक्ति करवाकर अपने साथ मिला लेता है। यही एक जरिया है कि हम भक्ति करके भजन-सुमिरन करके परमात्मा से मिल सकते हैं।




मालिक की कृपा :-
मालिक ने कृपा की तो हमें सतगुरु की सोहबत और संगति प्राप्त हुई। उसके बाद हम पर सतगुरु की बख्शीश हुई और उन्होंने हमारी सूरत या आत्मा को शब्द जोड़ दिया, जिसका अभ्यास करके दुनिया से हमारा मोह निकल जाता है। और हमारे अंदर मालिक का प्यार पैदा हो जाता है। इसीलिए बाबा जी हर सत्संग में समझाते हैं कि जितना हो सके भजन सुमिरन करो। हर रोज ढाई घंटे का वक्त दो। बिना भजन सुमिरन के परमात्मा से मिलना असंभव है। हमें भी चाहिए कि उस परमात्मा का ध्यान करें, भजन सुमिरन करे। ताकि मनुष्य जन्म का फायदा उठा सके।


                   ||   राधास्वामी   ||

इसको पढ़ोगे तो पार हो जाओगे

संत हमेशा रूहानियत की बात करते हैं। जब भी बाबाजी सत्संग फरमाते हैं तो वह हमेशा इंद्रियों के भोगों से दूर रहने के लिए कहते रहते हैं। हमेशा समझाते हैं कि भाई जो भी कुछ हम अपनी आंखों से देख रहे हैं। वह सब नाशवान है। उसको नाश हो जाना है। रूहानियत में केवल नम्रता और प्रेम भाव की आवश्यकता है। और यह प्रेम भाव ही हमारे भजन सुमिरन में मदद करता है।


बाबा जी समझाते हैं :-
बड़ी मुश्किल से हमें यह मनुष्य का जामा मिला है। लेकिन यहां इस जामे में आकर मन के अधीन होकर हम इंद्रियों के भागों में फंसे बैठे हैं। जितना भी हमारा दुनिया से ताल्लुक या संबंध है। सब हमारे शरीर के जरिए ही है। जब तक हम शरीर में बैठे हैं। हमें यह यार, दोस्त, रिश्तेदार, भाई-बहन और दुनिया की धन-दौलत, कौम, मुल्क वगैरह सब अपने ही नजर आते हैं। और हम इन्हें अपना बनाने की कोशिश करते हैं। लेकिन जब हमारी आत्मा इस मनुष्य शरीर को छोड़कर चली जाती है। जब इस दुनिया के सारे ढकोसले यही रह जाते हैं। इसलिए समझाते हैं कि भाई भजन सुमिरन करो। परमात्मा का ध्यान करो।

कोई भी रिश्तेदार मौत के समय काम नहीं आता। जिस प्रकार एक पानी की टेंकी में कितना भी पानी क्यों न भरा हो। उसमें एक नल लगा कर खोल दे तो पूरी टेंकी खाली हो जाती है। इसी प्रकार हमारा यह शरीर सांसो का भंडार है। जब तक हमे साँस जा रही है। हम किस तरह इस दुनिया में एक-दूसरे के लिए भागदौड़ कर रहे हैं। दुनिया में अपने पेट के लिए और लोगों के लिए हम क्या नहीं करते। लेकिन हम उस समय को भूल जाते हैं। कि जिस समय यह सांसो का भंडार समाप्त हो जाएगा। लोग हमारी मौत पर तार भेजेंगे और टेलीफोन करेंगे। सगे संबंधी इकट्ठे होकर इस शरीर को जिसे हमें इतना प्यार था या तो अग्नि के सुपुर्द कर देंगे या मिट्टी में दफना देंगे।


इसीलिए संत समझाते हैं
कि भाई यह मनुष्य जन्म कुछ समय के लिए मिला है। हमें इस मनुष्य जन्म का लाभ उठाना है। मनुष्य जन्म भी एक ऐसा है जिसमें पांच तत्व होते हैं। हमें भजन सिमरन करना चाहिए। जितना समय मिले, जब भी मिले भजन करना चाहिए। क्योंकि भजन सुमिरन ही एक रास्ता है जिसके जरिए हम परमात्मा को पा सकते हैं। हम अपने निजी घर जा सकते हैं। एक यही आखिरी मौका है। हिम्मत करेंगे, मंजिल को पा जाएंगे। अन्यथा इस चौरासी की जाम में ऐसे ही फसते रहेंगे आते रहेंगे जाते रहेंगे।

                     || राधास्वामी ||

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

मन को ऐसे करो काबू में।पढ़ना ना भूलें।

संत हमेशा समझाते आए हैं कि इस दुनिया में कोई किसी का नहीं है। जितने भी हमारे यार, दोस्त, रिश्तेदार, सगे-संबंधी है। सभी केवल स्वार्थ के साथ जुड़े होते हैं। जब तक उनका स्वार्थ है। वह हमारे साथ हैं। जिस दिन उनका स्वार्थ पूरा हो जाएगा, वे कभी भी आपको नहीं पूछने आएंगे कि आप कैसे हैं? आप का काम कैसे चल रहा है? आपको कोई परेशानी तो नहीं है?



एक कहानी है
कि किसी का अपनी पत्नी के साथ बहुत प्रेम था। जब पत्नी की मृत्यु हो गयी तो उसने अपनी पत्नी को एक संदेश भेजना चाहा। उसने एक कमाई वाले अभ्यासी को अंतर में अपनी पत्नी को संदेश देने के लिए कहा। अभ्यासी पहले ध्यान अंदर ले गया और फिर बाहर ले आया। उसने अभ्यासी से पूछा की मेरी पत्नी क्या कहती है? अभ्यासी ने जवाब दिया, "वह पूछती है, कौन-सा पति? जब से मैं इस रचना में उतरी हूँ, मेरे इस नाम के अनेक पति हो चुके हैं। आप कौन से पति की बात कर रहे हैं?" यह है हमारे मोह की सीमा।


हम सोचते हैं कि रिश्ते इतने असली और जरूरी है, हमारी इनकी प्रति बहुत जिम्मेदारी है पर रूहानी दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि इस सारी सोच को पूरी तरह से पलटने की जरूरत है। जो कुछ हम इस समय कर रहे हैं। उसकी बिल्कुल विपरीत करना चाहिए। हमारी असल प्राथमिकता आत्मा के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करने की होनी चाहिए। हमें अपनी आत्मा को दूसरी हर चीज से अधिक कीमती महत्वपूर्ण समझना चाहिए।


मन-आत्मा को बहुत ही विचलित करके रखता है। मन चंचल और शातिर है। वह आत्मा को अनेक तरह की मोह, माया, अहंकार की चीजों में फंसा के रखता है। हम अहंकार की बात करें। हम सोचते हैं कि हम संसार में इतने बड़े और ऊंचे हैं कि लोगों को हमारे बड़प्पन के बारे में पता चलना चाहिए। हम सोचते हैं कि लोगों को हमारे साथ-साथ होने की चाहत होनी चाहिए। हमें हमारे मन का और अधिक मुआवजा मिलना चाहिए और सतगुरु को खुद आकर हमारी सेवा के लिए हमारा धन्यवाद करना चाहिए। हमारे अंदर इतना ज्यादा अहंकार भरा हुआ है। पर जब रूहानियत की बारी आती है तो हम नम्रता की प्रतिमा बन जाते हैं और अत्यंत तुच्छ और गुणहीन बन जाते हैं। हम कहते हैं कि हम अपना बचाव और अपने मन के साथ लड़ाई कर सकने की योग्य नहीं है। हम कहते हैं,  "हे सतगुरु! तू ही यह काम कर दे। तू ही हमारी जगह भजन-सुमिरन करले।'' पर हम नम्रता के पुंज बन जाते हैं जबकि होना बिल्कुल इसके विपरीत होना चाहिए।


हमें मन को इन मायावी चीजों से दूर रख चाहिए। मन को भजन-सुमिरन में लगाने की कोशिश करना चाहिए। जितना हो सके मन को भजन में लगाने की कोशिश करें। अगर हम गौर करें तो पता चलता है कि मन मायावी चीजों का बहुत शौकीन है। लेकिन रूहानियत में संत महात्मा बताते हैं कि मायावी चीजें संत मार्ग में कष्ट दाई हैं। हमें चाहिए कि ज्यादा से-ज्यादा भजन-सुमिरन करें। उस परमात्मा का ख्याल करें और अपने निज धाम पहुंचे।


                    ||  राधास्वामी  ||

गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

विकारों को उलटाना ताकि भजन-सुमिरन बने

निर्मल सोच भजन सुमिरन में विघ्न डालने वाले भावों और विचारों को नई दिशा देने में सहायता करती है। पर हैरानी की बात है कि मन इतना अडियल है कि रूहानी अभ्यास के बारे में सोचते ही यह सभी कुछ आगे की बजाय पीछे कर देता है। हम काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार की बजाय मन में इनके विरोधी गुण पैदा करने की बात करते हैं। ताकि हमें भजन सुमिरन और रूहानी उन्नति में सहायता मिले।


क्या हम ऐसा करने में सफल हो जाते हैं। आमतौर पर होता है कि मन बीच में आ जाता है और सब कुछ उलट-पुलट कर देता है।

उदाहरण
के तौर पर काम, इंद्रियों को भोगों की ओर खींचता है। इसका विरोधी गुण, शील या संयम है। पर क्या अपने आप को रूहानी मार्ग का यात्री कहने के बावजूद, हम शील या संयम धारण करते हैं? क्या यह एक आश्चर्य नहीं है कि हम संयम का केवल भजन सुमिरन के अभ्यास में ही प्रयोग करते हैं? हम यहां तक कह जाते हैं कि अधिक भजन सुमिरन खतरनाक या हानिकारक होता है। इसके विपरीत हम काम-वासना में बह जाने की अपनी कमजोरी के पक्ष में दलीलें देते हैं। हम यहां तक कह देते हैं कि मैंने तो अनुभव प्राप्त करने के लिए भोग, भोगा होगा था। हम दलित देते हैं, " मेरे लिए यह अनुभव करना जरूरी था। मुझे इस चीज का ज्ञान होना चाहिए। मुझे इस अनुभव में से गुजरना ही चाहिए था। परंतु हम यह नहीं सोचते यह हमारी रूहानी यात्रा में कष्ट दाई है।"

रूहानी मार्ग
का साधक होने के नाते हमें इसके बिल्कुल उलट सोचना और करना चाहिए। हमारे अंदर कामना अधिक से अधिक भजन सुमिरन की होनी चाहिए। अगर हमारे अंदर रूहानियत की गहरी कामना है तो हमारे अंदर भजन सुमिरन करने की गहरी कामना या तडप भी होनी चाहिए। हमारे मन में भजन सुमिरन इतनी प्रबल कामना होनी चाहिए कि हम उस अवस्था में पहुंच जायें, जहां अपना अस्तित्व ही इसमें खो दें।

इसलिए हमें भी चाहिए
कि अपना सब कुछ काम करते हुए, इस दुनिया के रीती-रिवाज सभी धर्मों का आदर सम्मान करते हुए। हमें अपने रूहानी सफर को तय करना है। और ज्यादा से ज्यादा भजन सुमिरन को समय देना है। ताकि हमें एक मालिक ने जो काम सौंपा था। हम उसको पूरा करके अपने निजधाम, अपने निजी घर, परमात्मा के पास पहुंच जाए। ताकि हमारा आवागमन के चक्कर से छुटकारा हो जाए। इस चौरासी के जेल खाने से छुटकारा हो हो जाए। इसमें कोई ज्यादा सोचने की बात नहीं है। कि हमें क्या करना है। आपको केवल सिमरन करना है। उस परमात्मा का ध्यान करना है। जितना समय हो उसके परमात्मा की शरण में, उसके चरणों में ध्यान लगाना चाहिए। आइए हम भी यह सोच पैदा करें कि हमारा कोई भी ऐसा पल, कोई भी ऐसे समय खाली ना जाए, जिस वक्त हम उस परमात्मा को याद ना करे।
                  
                    || राधास्वामी ||

सोमवार, 10 दिसंबर 2018

परमात्मा की कृपा सदा बनी रहे, आजमाएं यह विधि!

परमात्मा की कृपा हम सब पर सदा बनी रहती है। परमात्मा कभी भी हमसे दूर नहीं होते। परमात्मा तो हमारे अंदर बसे हुए हैं। परमात्मा का वास हमारे अंदर है। संत महात्मा हर सत्संग में यही बात फरमाते आते रहते हैं, कि परमात्मा को कहीं बाहर नहीं खोजना, परमात्मा तो खुद हमारे अंदर विराजमान है।


नम्रता और दीनता
जब हमारे अंदर नम्रता और दीनता आएगी तो हमारा ध्यान मालिक की भक्ति और प्यार की ओर जाएगा। यह केवल संतों की संगति के द्वारा ही संभव हो सकता है और ऐसे संतों की संगति मालिक की बख्शीश और कृपा से ही मिलती है। सच तो यह है कि मालिक बक्शीश करें, तभी हमारा ख्याल उसकी भक्ति और प्यार की ओर जाता है।

यानी उस मालिक को मंजूर होगा तभी हम उसकी भक्ति कर सकेंगे। हम दुनिया के जीव अंधे हैं, कुल मालिक आंखों वाला है। अंधे की ताकत नहीं कि वह आंखों वाले को पकड़ सके, जब तक आंखों वाला अंधे को आवाज देकर, उसे अपने पास नहीं बुलाता या अपनी अंगुली पकड़ कर उसे अपने साथ नहीं ले चलता। हम दुनिया के जीव इस माया के जाल में फस कर मालिक को भूलकर अंधे और बहरे हो गए हैं। मालिक ही कृपा करें तो हमारा ख्याल उसकी भक्ति की ओर जा सकता है।

हज़रत इसा भी बाइबल में कहते हैं
'इसीलिए मैंने तुमसे कहा था कि कोई भी मनुष्य मेरे पास नहीं आ सकता, जब तक कि मेरे पिता से उसे यह बक्शीश ना मिली हो।'
'कोई मनुष्य मेरे पास नहीं आ सकता जब तक कि पिता, जिसने मुझे भेजा है, उसे खींच न ले।'

यानी जीव की कोई ताकत नहीं की वह मालिक की ओर आए। जब तक कि मालिक ही उस पर यह बक्शीश न करें।

संत महात्मा समझाते हैं
कि जब तक हम उस परमपिता परमात्मा के हुकम में नहीं चलेंगे, जब तक हमें इसी तरह इस मनुष्य जन्म में बार-बार जन्म लेना पड़ेगा। इस जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा नहीं हो सकता।

हां अगर हम परमात्मा के हुक्म में चलते हैं, हक हलाल की कमाई करते हैं, भजन सुमिरन करते हैं तो निश्चित ही हम उस परमपिता परमात्मा के साथ मिल सकते हैं। हम परमात्मा को पा सकते हैं। हमें भी चाहिए कि हम भजन सुमिरन करें और अपने जीवन को सफल बनायें।

                       || राधास्वामी ||

रविवार, 9 दिसंबर 2018

मुक्ति के लिए भजन सुमिरन ही दवाई। पढ़ें

सूरमा वही है, मन और इंद्रियां जिसके वश में है। क्योंकि अंदर तरक्की उसी मात्रा में होगी जिस मात्रा में यह दोनों वश में होंगे। सुमिरन बाहर भटकते मन को अंतर में लाता है और शब्द से ऊपर की ओर खींचता है। हमारे अंदर अखूट भंडार है। वह परमात्मा खुद भी हमारे अंदर है। जो अंदर जाता है, वही इसका अनुभव करता है; और लोगों को तो इसका अनुमान तक नहीं है।
  --------महाराज सावन सिंह-------


सोच विचार में पड़े से हम अपना ध्यान तीसरे तिल पर एकाग्र नहीं कर पाते और शब्द से जुड़ नहीं पाते। इस रोग से हमारे अहं का पोषण होता है और वह और अधिक मजबूत होता जाता है। अहंकार या होमैं हमारी आत्मा को कैंसर के रूप के समान ढक लिया है और यह हमारे जीवन के हर पहलू को नष्ट कर रहा है। हम आत्मिक तौर पर बीमार हैं और भजन सुमिरन ही एकमात्र दवा है। जो हमें निरोग कर सकेगी। अगर हम दवा का प्रयोग ना करें तो हमारा स्वास्थ्य कैसे सुधर सकता है?


हम संत मार्ग के बारे में बातें करते हैं, पुस्तके पढ़ते हैं और चर्चा करते हैं। इस विषय में बहुत कुछ कहा जा चुका है, बहुत कुछ लिखा जा चुका है। चाहे तो हम शेष सारा जीवन बातें कर सकते हैं, पुस्तके पढ़ सकते हैं; पर बातें निरर्थक है और ज्यादा पुस्तकें ही हमें संतो के अनुभव का ज्ञान नहीं करवा सकती। जब हमें नामदान मिल गया है, तो हमें अधिक पुस्तकों की, अधिक चर्चा करने की, रिकॉर्ड की हुई टेपो आदि की या फिर सतगुरु के देह स्वरूप के पीछे दौड़ने की कोई आवश्यकता नहीं रहती।




हमें और विचारों या संकल्पों की आवश्यकता ही नहीं है। जो चीज हमें चाहिए, वह है अनुभव --कम जानकारी, अधिक बदलाव। स्वयं में यह बदलाव या तब्दीली लाने के लिए जिस एकमात्र चीज की चिंता करने की जरूरत है, वह है हमारी दवा-- दिन भर अधिक से अधिक भजन सुमिरन करना और भजन में बैठना। अगर हम पूरी इमानदारी के साथ शब्द-मार्गी सतगुरु द्वारा बताई गई विधि के अनुसार अभ्यास करें तो हम बेहतर इंसान बन जायेंगे, हमें अधिक अविनाशी आत्मा का ज्ञान हो जाएगा और परमात्मा को पा लेंगे।




समय भजन सुमिरन को दे.
इसलिए हमें भी चाहिए कि ज्यादा से ज्यादा समय भजन सुमिरन को दे और हक हलाल की कमाई पर अपना गुजारा करें। ताकि भजन सुमिरन ठीक से बन सकें। मन शांत रहें।


                  || राधा स्वामी ||

शनिवार, 8 दिसंबर 2018

मन को शांत रखें, भजन सुमिरन विधि के लिए पढ़ें

संतमत में अक्सर समझा जाता है कि जब तक मन एकाग्र नहीं होगा। आप कुछ भी हासिल नहीं कर सकते। जब तक मन शांत होकर नहीं टिकता। आप भजन सुमिरन नहीं कर सकते। क्योंकि जब भी आप भजन सुमिरन करने बैठते हैं तो मन अपना खेल दिखाना शुरू कर देता है। मन आंखों के सामने अजीब-अजीब तस्वीर खड़ी करता रहता है। इसलिए संत महात्मा समझाते हैं कि भजन सुमिरन के लिए एकाग्रता बहुत जरूरी है।



हर समय, हर हालात में और हर स्थान पर प्रार्थना करना संभव है। अक्सर बार-बार बोल कर की गयी विनतियों से ऊपर उठकर मन द्वारा और मन से भी ऊपर उठकर हृदय द्वारा विनती करना संभव है। ऐसी प्रार्थना से हमारे अंदर एकदम परमेश्वर के दरबार के पट खुल जाते हैं।


बाबाजी समझाते हैं
कि जब हम अभ्यास में बैठते हैं। तो हमें एकदम निश्चिंत होना चाहिए। सुमिरन करते समय केवल सुमिरन करना चाहिए और बाकी सब कुछ भूल कर अपने आप को खुले छोड़ देना चाहिए। इसलिए अभ्यास में सबसे पहले ध्यान तीसरे तिल पर रखकर सुमिरन करना चाहिए। हमें मन को अन्य हर प्रकार के विचारों में से निकालना है। और ध्यानपूर्वक सुमिरन में लगाना है। शुरू-शुरू में मन को सुमिरन में रखना अड़ियल घोड़े को साधने के समान है। इसलिए यह लाभदायक होगा कि हम स्वीकार करें कि हम अपने आप को सांसारिक रिश्तो से अलग कर रहे हैं। हमें अपने आपको कहना चाहिए, "अब मुझे सब विचार एक ओर रखकर मन को पूरी तरह सिमरन में लगाना है।" इस प्रकार हम अपना ध्यान एकाग्र करना शुरू करते हैं। ध्यान हर तरफ फैलने की बजाय एक नुक्ते पर आना शुरू हो जाता है। यह अपनी भजन मे बैठने की सबसे अच्छी काला है, सबसे अच्छा तरीका है।




महाराज सावन सिंह जी :-
आत्मा को जबरदस्ती ऊपर चढ़ाने की कोशिश मत कीजिए। (समय आने पर) आत्मा अपनी राह अपने आप पा जायगी।




इसलिए हमें भी चाहिए
कि भजन सुमिरन पर ध्यान दें। गुरु द्वारा बताए गए तरीके से भजन सुमिरन करें और मन को एकाग्र करने की कोशिश करें। ध्यान तीसरे तिल पर टिका कर परमात्मा का ध्यान करें। भजन सुमिरन ही एक ऐसा साधन है जो मनुष्य को आवागमन के चक्कर से छुटकारा दिला सकता है। अन्यथा संसार में ऐसी कोई दूसरी युक्तियां, दवा या तरीका नहीं है कि जिसके जरिए आवागमन खत्म हो सके। इसलिए संत महात्मा समझाते हैं कि ज्यादा से ज्यादा भजन सुमिरन को समय देना चाहिए।
 
                    ||  राधा स्वामी  ||

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

असलियत जानने बिना मुक्ति नहीं, यहां पर मुक्ति संभव

सबसे पहले तुम प्रभु की राज्य में पहुंचने का प्रयास करो, फिर तुम्हें सबकुछ स्वतः ही प्राप्त हो जायेगा|


हमारा असल, हमारी आत्मा असीमित है| यह हर प्रकार की सीमा-बंधनों से मुक्त है| परंतु हमने अपनी तवज्जुह उस असीमित सम्पूर्ण प्रकृति से हटाकर, अपने व्यक्तित्व की सीमित, सापेक्ष, साधारण परिस्थितियों की ओर मोड़ ली है| जब तक हमारा ध्यान अपने यथार्थ यानी असलियत की ओर से हटा रहेगा, हम द्वैत में फँसे रहेंगे और उस परम आनंद से जो कि हमारी पहुंच में है, सदा अनजान रहेंगे| उससे दूर रहेंगे| संसार और इसकी वस्तुओं के मायाजाल में उलझ कर हम अपना जीवन बर्बाद कर देते हैं| बार-बार हम इस भौतिक जगत की माया और भ्रम का शिकार होते रहते हैं|


सूफी संत मौलाना रूम कहते हैं
    हमारी अवस्था उस सेवक के जैसी है जो अपनी राजा के हुक्म से किसी के लिए किसी दूसरे मुल्क में जाता है| वह सेवक उस मुल्क में जाकर कई अद्भुत और आश्चर्यजनक कार्य करता है और फिर अपने राजा के पास लौट आता है|

राज दरबार में राजा उससे पूछता है
    "क्या तुमने वह काम किया जिसके लिए मैंने तुम्हें भेजा था?"  सेवक ने जवाब दिया, " मालिक!  मैं आपका बड़ा आभारी हूँ| जहां आपने मुझे भेजा था, वह एक अद्भुत स्थान है| वहां मेरी मुलाकात एक सुंदरी से हुई और मैंने उससे शादी कर ली| फिर हमारे बच्चे हुए और उनके साथ हमारी जिम्मेदारी बढ़ गई, इसलिए मैंने एक दुकान खोल ली|"
   
   राजा ने बीच में टोका और पूछा, "परंतु उस काम का क्या हुआ जिसके लिए मैंने तुम्हें भेजा था? तुमने वह काम किया या नहीं?  मैंने तुम्हें शादी या बच्चे पैदा करने, धन कमाने या अन्य प्रकार की काम करने के लिए नहीं भेजा था|"
सेवक ने शर्म से अपना सिर झुका लिया और बोला," मालिक!  मुझे अफसोस है! मैं भूल गया था....|"

राजा बोला "तुम वही काम क्यों भूल गए जिसके लिए तुम्हें भेजा गया था? अब तुम्हें उसी काम के लिए दोबारा जाना होगा|" और यही कारण है कि हम भी बार-बार इस संसार में भेजे जाते हैं| क्योंकि हम अपना असलियत काम भूल जाते हैं| वह काम अभी अधूरा है| जब तक वह पूरा नहीं होगा| हमारा इस संसार में आना जाना लगा रहेगा|


इसीलिए संत महात्मा भजन सुमिरन पर जोर देते हैं| और बार-बार चेतावनी देते रहते हैं कि जितना ज्यादा से ज्यादा हो सके भजन सुमिरन करे| मालिक की याद में बैठे और मालिक के द्वारा बताया गया काम पूरा करके ही हम अपने निजधाम पहुंचे ताकि हमारा मनुष्य जन्म में आने का मकसद पूरा हो|


                       ||राधा स्वामी ||

गुरुवार, 6 दिसंबर 2018

संतों का कहना, परमात्मा एक है

दुनिया में जितने भी संत महात्मा हुए हैं| सभी संत महात्माओं का ही मानना है कि वह कुल मालिक, परमात्मा, ईश्वर एक है| पूरी दुनिया में उसी का वास है| जितने भी संत महात्मा हुए हैं| उन्होंने इस बात को बड़ी गंभीरता से लिया है की परमात्मा एक है| परमात्मा जर्रे-जर्रे,  पत्ते+पत्ते में समाया हुआ है|
सब महात्माओं का यही अनुभव है कि जिस परमात्मा से हम अब मिलना चाहते हैं, वह एक है| यह नहीं कि हिंदुओं का कोई और या सिखों और ईसाईयों का कोई और है|




शेख साअदी कहते हैं
बनी आदम आअज़ाए यक दिगर अन्द,
कीह् दर आफ्ररीनश ज़ि यक जौहर अन्द|
सभी इंसान एक ही जिस्म के जुदा-जुदा अंगों की तरह है क्योंकि सभी एक ही स्त्रोत से निकले हैं|


गुरु अर्जुन देव जी फरमाते हैं
एकु पिता एकस के हम बारिक....||

सभी इंसान एक ही परमात्मा के बच्चे हैं| और सबका एक ही पिता है, इसलिए सभी भाई-भाई है|


सिर्फ इंसानों को ही नहीं, संसार के सभी जीवो को पैदा करने वाला वह परमात्मा एक ही है| मुसलमान फकीर उस परमात्मा को 'रब्बुल-आलमीन' कहकर याद करते हैं| कि सारे आलम का एक ही परमात्मा है| और हमेशा से वही परमात्मा चला आ रहा है| यह नहीं कि पहले कोई और परमात्मा था या अब कोई और है|




संत फरमाते है हमारे तजुरबे में एक ऐसी चीज आई है जो आदि-जुगादि से चली आ रही है| जो कभी नाश या फना नहीं होती, वह एक परमात्मा है| जिसके महात्माओं ने हजारों नाम अपने-अपने प्यार में आकर रखे हुए हैं| उस मालिक के अलावा जो कुछ भी हम आंखों से देख रहे हैं| सबने नष्ट या फना हो जाना है| कोई भी चीज यहां स्थिर नहीं है|


इसलिए संत महात्मा फरमाते हैं कि केवल उस एक परमात्मा का ध्यान करो| उनके नाम का जाप करो| ताकि इस मनुष्य जन्म में आने का मकसद पूरा हो सके| हमारा जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा हो सके|


                        || राधा स्वामी ||

बुधवार, 5 दिसंबर 2018

सुख और शांति की तलाश, यहाँ हो सकती है खत्म।

संतों ने हमेशा फ़रमाया है कि सत्संग ही एक ऐसा साधन है जिसके जरिये हम सुख औऱ शांति हासिल कर सकते हैं| हर एक इंसान सुख और शांति की तलाश कर रहा है, और अलग-अलग चीजों में अलग-अलग स्थानों पर जाकर सुख और शांति ढूंढ रहा है| लेकिन असली सुख और असली खुशी सिर्फ शब्द में ही है| जिसके साथ हमारा ख्याल सिर्फ सतगुरु की जरिए ही जुड़ सकता है|



शब्द हमारे अंदर
वह शब्द बेशक हमारे अंदर है| लेकिन अगर हमें किसी संत महात्मा की संगति नहीं मिली तो हम उस ऊंची सच्ची और पवित्र धुन को कभी नहीं पकड़ सकते| इसलिए हमें चाहिए कि पूरे गुरु की तलाश करें| जो हमारे ख्याल को उस शब्द से जोड़कर हमें मालिक से मिला दे| इसके अलावा और कोई चीज हमें असली और सच्ची खुशी नहीं दे सकती|


गुरु अमरदास जी फरमाते हैं
कि अगर इंसान संसार में अनेक प्रकार के भोग भोग रहा है| नौ खंड पृथ्वी का राज भी कर रहा है तो भी उसे बिना सतगुरु की सच्चा सुख नहीं मिल सकेगा और वह बार-बार जन्म लेता और मरता रहेगा|




संतो महात्माओं में हमारे अंदर बोलकर कुछ नहीं डालना है| वह दौलत परमात्मा ने हमारे अंदर हमारी खातिर रखी है| और हमें अंदर से ही मिलेगी| संत तो सिर्फ युक्ति और साधन समझाते हैं| जिस तरह विद्या की ताकत हर एक इंसान के अंदर जन्म से ही है| लेकिन सोई हुई है| जब हम स्कूलों-कॉलेज में जाते हैं| उस्तादों के आदेश के मुताबिक चलते हैं| रातों को जागते हैं| तब सोई हुई ताकत हमारे अंदर से ही जाग उठती है| फिर हम B.A., M.A. कर लेते हैं| विद्वान बन जाते हैं| जो विद्यार्थी अध्यापक से डरकर स्कूलों कॉलेजों में नहीं जाते| विद्या की ताकत उनके अंदर भी है| लेकिन वह सोई आती है और सोई ही चली जाती है| जो विद्या प्राप्त कर लेते हैं| उनके अंदर अध्यापक घोलकर तो कुछ नहीं डालते| सिर्फ उनकी संगति करने से ही विद्यार्थी की सोई हुई ज्ञान-शक्ति जाग उठती है| हम सबको मालूम है कि दूध के अंदर घी है| लेकिन अगर हमें युक्ति या तरीका पता ना चले तो हम कभी भी उस घी को दूध से नहीं निकाल सकते| घी हमेशा दूध से ही निकलता है| लेकिन युक्ति के बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता|




इसलिए हमें भी चाहिए कि अपने पूरे सतगुरु के हुक्म में चले और भजन सुमिरन करें| जितना हम भजन सिमरन करेंगे उतना परमात्मा के नजदीक जा पाएंगे| भजन सुमिरन करते रहने की साथ ही हम इस मनुष्य जन्म का लाभ उठा सकते हैं| और इस आवागमन के चक्कर से छुटकारा पा सकते हैं| और हम अपने निज घर पहुंच सकते हैं|


                        || राधा स्वामी || 

मंगलवार, 4 दिसंबर 2018

इस जरिए परमात्मा को हम पा सकते हैं, विधि जानने के लिए पढें

संत महात्मा बताते हैं कि यह मनुष्य चोला बड़ी मुश्किल से मिलता है| और एक यह एक ही साधन है| जिसके जरिए हम आवागमन के चक्र से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं| मनुष्य जन्म ही यह ऐसा है जिसमें हम बैठकर भजन सुमिरन करके चौरासी लाख जून की जन्म-मरण के चक्कर से छूट सकते हैं| लेकिन यहां इस जामे में आकर मंकी अधीन होकर हम इंद्रियों के भोग में फंसे बैठे हैं| और हम इतना इन इंद्रियों के भोगों में लिप्त हो गए हैं कि सब कुछ भूल बैठे हैं| यहां तक कि परमात्मा को भी भूल बैठे हैं|




संत महात्मा समझाते हैं
जितना भी हमारा दुनिया से ताल्लुक या संबंध है| सब हमारे शरीर के जरिए ही है| जब तक हम शरीर में बैठे हैं| हमें ये यार-दोस्त, रिश्तेदार, भाई-बहन और दुनिया की धन-दौलत, मुल्क वगैरह सब अपने ही नजर आते हैं| या कम से कम हम इन्हें अपना बनाने की कोशिश करते हैं| जिस समय शरीर से हमारा साथ छूट जाता है| इन सब चीजों से भी संबंध टूट जाता है| हमें चाहिए कि जब तक परमात्मा ने इस शरीर में बैठने का मौका दिया है| इससे काम लें| इसमें बैठकर न तो इसे इतना दुख देना है कि मालिक की भक्ति ही ना हो सके और ना ही इसे इतना सुख और आराम में रखना है कि हमारा ख्याल ऐशो -इशरत की ओर चला जाए| मालिक भक्ति ही हमारा असली काम है| और हमें वही इससे करवाना है|




संत समझाते हैं
कि यह शरीर काल का पिंजरा है| किराए का मकान है| जितनी सांस मालिक ने हमें बक्से हैं| उनको भुगतने के बाद इसे छोड़ना पड़ेगा| यह शरीर किसी का साथ नहीं देता| यहाँ बड़े-बड़े राजा-महाराजा, बादशाह, तानाशाह जिनसे दुनिया थर-थर कांपती थी| आज उनकी कब्रों को हम किस तरह नफरत भरी नजरों से देखते हैं| कभी हमारी कब्रों को भी लोग इसी तरह से देखेंगे| इसलिए महात्मा हमें गफलत की नींद से बेदार करते हैं कि उस समय को अपनी आंखों के सामने रखो| जब कोई भी चीज तुम्हारी मदद नहीं करेगी| यह भाई-बहन, रिश्तेदार, मित्र सब हमारे आस पास ही बैठे रह जाते हैं| इन्हें यह भी पता नहीं चलता की मौत की फिर फरिश्ते किस समय और किस रास्ते से आकर हमें पकड़कर ले जाते हैं| रोने-धोने के अलावा कुछ नहीं कर सकते| हमारी क्या मदद कर सकते हैं| उन सब के साथ हमारा लेने देने का संबंध है| गरज का प्यार है| जब उनसे हमारा हिसाब हो जाएगा| हम इस दुनिया को छोड़ कर चले जाते हैं और उनसे बिछड़ जाते हैं|


इसीलिए संत महात्मा भजन सुमिरन पर जोर देते हैं| और कहते हैं कि जब तक हमारी सांसे चल रही है| जब तक हमें भजन सिमरन करना चाहिए| पता नहीं किस समय मौत आ जाएं| हमारे सारे प्लान पल भर में खत्म हो जाएंगे| इसलिए हमें चाहिए कि जब भी समय मिले भजन सुमिरन पर जो देना चाहिए| ज्यादा से ज्यादा सुमिरन करना चाहिए| ज्यादा से ज्यादा भजन पर बैठना चाहिए| जिससे हम परमात्मा को पा सकें|
  
                     || राधा स्वामी ||

सोमवार, 3 दिसंबर 2018

एक बार इसको पढ़ोगे तो आंखें खुल जायेंगी

इस दुनिया में जितने भी भी संत महात्मा आए हैं| उन सभी का यही कहना है कि की परमात्मा का ध्यान करो| भजन सुमिरन करो| वहां पर केवल आपकी भक्ति की कद्र की जाएगी, ना कि आपकी जाति और धर्म पूछा जाएगा| परमात्मा के दरबार में केवल भक्ति भाव ही देखा जायेगा|

परमात्मा की कोई जाति या धर्म नहीं होता

उस मालिक की कोई कौम नहीं है, उसका कोई मजहब या मुल्क नहीं है| न ही उस मालिक की कोई जाति या रंग-रूप है| अगर हम महात्माओं की वाणीयों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करें तो पता चलेगा कि वे हमारे ख्याल को जाती-पाती, कौम, मजहब और मुल्क के भेद-भाव से ऊंचा उठाकर हमारे अंदर परमात्मा की भक्ति का शौक और प्यार पैदा करते हैं| वह हमें परमात्मा की भक्ति करना सिखाते हैं| हमारे अंदर परमात्मा के प्रति प्रेम भरते हैं।


जिस परमात्मा ने अपने हुकुम के द्वारा इस सृष्टि की रचना की है, अगर उसका कोई रंग-रूप और जाति नहीं है तो हमारी आत्मा की ---जो उस परमात्मा की अंश है, उस परमात्मा से ही निकली है और वापस जाकर उसमें ही समाना चाहती है--- कैसी कोई जाति हो सकती है? जब समुंद्र की कोई जाति नहीं है तो उसकी एक बूंद की क्या जाति हो सकती है| अगर सूरज की कोई कौम या मजहब नहीं है तो एक मामूली किरण की कौन-सी कौम, कौन सा मजहब हो सकता है? यह सब जाति-पाति के झगड़े हमारे अपने पैदा किए हुए हैं| परमात्मा ने तो सिर्फ इंसान पैदा किए हैं| हम अपने आप को जाती-पाती , कौम, मजहब और छोटे छोटे दायरों में बांट रहे हैं| और एक-दूसरे  के भेद-भाव में फंसे हुए हैं|


केवल भक्ति की कद्र
इंसान को केवल संतों की बताई हुई वाणी पर अमल करना चाहिए| इंसान को जब समय मिले, भजन सुमिरन पर जो देना चाहिए| क्योंकि मालिक के दरबार में केवल आपकी भक्ति और प्यार की कद्र की जाएगी| वहां पर केवल आपकी भक्ति भाव को देखा जाएगा| ना कि वहां पर आपकी किसी जाति या धर्म को पूछा जाएगा| इसलिए हमें भी चाहिए कि ज्यादा से ज्यादा भजन सुमिरन करें और इस मनुष्य जन्म का लाभ उठाएं|

                     || राधा स्वामी ||

रविवार, 2 दिसंबर 2018

पूर्ण सतगुरु कौन? पहचान कैसे हो?

संसार में बहुत संत महात्मा आए हैं और आते रहेंगे लेकिन इन सब में सच्चा और पूर्ण गुरु बनने योग्य कौन हैं? और इनकी कैसे पहचान हो? यह जानना बहुत जरूरी है|


पूरा गुरु वही है जो हमें पांच शब्दों का  भेद देता है और इन पांच शब्दों के द्वारा हमें अपने सच्चे घर ले जाता है| स्वामी जी महाराज भी अपनी वाणी में यही फरमाते हैं| कि शब्द-स्वरूपी, शब्द -अभ्यासी गुरु की ही तलाश करनी चाहिए|


हज़रत ईसा भी यही फरमाते हैं
कि अगर महात्मा पूरा नहीं होगा तो वह खुद भी अपने शिष्यों के साथ डूब जाएगा| फरमाया है, 'अगर अंधा अंधे का मार्गदर्शन करेगा, तो दोनों गड्ढे में गिरेंगे|'

पूरे और सच्चे गुरु की यही पहचान है कि वह हमारी आत्मा को अनहद शब्द के साथ जोड़ देते हैं| जिसे ऐसा गुरु मिल जाता है| वह अपने अंदर उस शब्द की ऊंची और मीठी आवाज को सुनना शुरू कर देता है| जो शुरू-शुरू में घंटे की आवाज के समान होती है|

वह अनहद शब्द ही आनंद और कभी बंद न होने वाला ऊंचा और सबसे सच्चा संगीत है| वह शब्द ही हमेशा हमारे अंदर गूँजने वाली ईश्वरीय आवाज़ हैं| सच्चे गुरु अपने सेवक को उस शब्द को सुनने का भेद और तरीका बतलाते हैं| उस अनहद शब्द को अंदर सुनने, उसी में समाने की युक्ति बतलाते हैं| गुरु खुद उस शब्द या नाम के साथ जुड़े होते हैं| वह हमें भी उस शब्द या नाम के साथ जोड़कर परमात्मा से मिला देते हैं|

हजरत ईसा ने भी यही इशारा किया है
'तुम मेरे अंदर समाये हुए हो, मैं उस परमात्मा के अंदर समाया हुआ हूँ,  इसलिए तुम भी उस परमात्मा के अंदर समाये हुए हो| वह इस प्रकार कहते हैं, 'जिसने मुझे देखा है, उसने अपने पिता को देखा है| क्या तुम सच नहीं मानते कि मैं पिता में और पिता मेरे अंदर है|


सच्चे गुरु की पहचान यही है, कि वह पाँच शब्दों का भेद दे, और अपने शिष्य को परमात्मा से मिलाने का सही तरीका और रास्ता बतलाएं| तो हमें भी सच्चे गुरु की शरण में जाकर भजन सिमरन पर ध्यान देना चाहिए| जिससे मनुष्य में आने का मकसद पूरा हो जाए|
                    || राधा स्वामी ||

शनिवार, 1 दिसंबर 2018

बिना इच्छाएं खत्म किए परमात्मा को पाना नामुमकिन है

संत महात्मा अपने हर एक सत्संग में सांसारिक की इच्छाएं खत्म करने पर काफी जोर देते हैं| संत महात्मा समझाते हैं की जितनी हमारी इच्छाएं कम होंगी| उतना हम परमात्मा के नजदीक होंगे|


तुलसी साहिब उपदेश देते हैं:-
दिल का हुजरा साफ़ कर, जानां के आने के लिये|
ध्यान गैरों का उठा उसके बिठाने के लिये||

दिल तो हमारा दुनिया के पदार्थों और शक्लों के लिए भटकता है, और मिलना हम मालिक से जाते हैं, ये दोनों बातें कैसे हो सकती हैं? मन तो एक ही है, उसे चाहे दुनिया के प्यार में लगा लें, चाहे मालिक की भक्ति में| हमारा कोई रिश्तेदार या प्यारा हमसे कहीं दूर चला जाता है, हम से बिछड़ जाता है, तो हम उसकी याद में किस तरह तड़पते हैं, सारी रात जागकर आंसू बहाते रहते हैं| क्या हमने कभी मालिक के बिछोड़े में एक रात भी जाकर काटी है? हमारी आंखों में उस मालिक की याद में एक आंसू भी आया है? हम अपने बच्चे को बाहर खेलने के लिए आया के साथ भेज देते हैं| आया तरह-तरह से उसका मन बहलाने की कोशिश करती है| कभी उसे मीठी-मीठी बातें सुनाती है, कभी मिठाई देती है, कभी खिलौनों से दिल बहलाती है| लेकिन फिर भी अगर बच्चा माता-पिता के लिए रोना शुरू कर देता है और आया कि किसी भी खिलौने से उसका मन नहीं भरता तो फिर माता-पिता भी उसकी तड़फ बर्दाश्त नहीं कर सकते, फ़ौरन जाकर बच्चे को छाती से लगा लेते हैं|

मन की इच्छाएं खत्म करो
इसी प्रकार, जब तक हम उस मालिक की रचना के साथ ही मोह या प्यार कीये बैठे हैं, अपने मन को इसी में उलझाये बैठे हैं, तो हम इस रचना का हिस्सा बने रहते हैं | तब तक हम मालिक को अपनी ओर खींचने में समर्थ नहीं है| जब इस रचना से अपने प्यार को निकाल कर पूरी तरह से मालिक की ओर लगा देते हैं तब वह भी दया-मेहर करके हमें अपने साथ मिला लेते है|

हमारा मन तो एक है और हजारों लाखों इच्छाएं हम दिन-रात करते रहते हैं| पिछली इच्छाएं और तृष्णाएँ पूरी नहीं होती है| कि मन और नई इच्छायें पैदा करना शुरू कर देता है| जो इच्छाएं हमारी मर्जी के अनुसार पूरी नहीं होती, वह हमारे लिए दुःख का कारण बन जाती है| जब हमारे मन की यह हालत है, तो परमात्मा हमारे अंदर कैसे बस सकता है?
नाम रूपी दौलत या धन को पाना इतना आसान नहीं है| जितना लोग समझते हैं| इसे वही शख्स प्राप्त कर सकता हैं जो अपने अंदर से कामनाओं और तृष्णाएँ को निकाल देता है|
                       || राधा स्वामी ||

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राधास्वामी जी

आप सभी को दिल से राधास्वामी जी