शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

मन को ऐसे करो काबू में।पढ़ना ना भूलें।

संत हमेशा समझाते आए हैं कि इस दुनिया में कोई किसी का नहीं है। जितने भी हमारे यार, दोस्त, रिश्तेदार, सगे-संबंधी है। सभी केवल स्वार्थ के साथ जुड़े होते हैं। जब तक उनका स्वार्थ है। वह हमारे साथ हैं। जिस दिन उनका स्वार्थ पूरा हो जाएगा, वे कभी भी आपको नहीं पूछने आएंगे कि आप कैसे हैं? आप का काम कैसे चल रहा है? आपको कोई परेशानी तो नहीं है?



एक कहानी है
कि किसी का अपनी पत्नी के साथ बहुत प्रेम था। जब पत्नी की मृत्यु हो गयी तो उसने अपनी पत्नी को एक संदेश भेजना चाहा। उसने एक कमाई वाले अभ्यासी को अंतर में अपनी पत्नी को संदेश देने के लिए कहा। अभ्यासी पहले ध्यान अंदर ले गया और फिर बाहर ले आया। उसने अभ्यासी से पूछा की मेरी पत्नी क्या कहती है? अभ्यासी ने जवाब दिया, "वह पूछती है, कौन-सा पति? जब से मैं इस रचना में उतरी हूँ, मेरे इस नाम के अनेक पति हो चुके हैं। आप कौन से पति की बात कर रहे हैं?" यह है हमारे मोह की सीमा।


हम सोचते हैं कि रिश्ते इतने असली और जरूरी है, हमारी इनकी प्रति बहुत जिम्मेदारी है पर रूहानी दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि इस सारी सोच को पूरी तरह से पलटने की जरूरत है। जो कुछ हम इस समय कर रहे हैं। उसकी बिल्कुल विपरीत करना चाहिए। हमारी असल प्राथमिकता आत्मा के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करने की होनी चाहिए। हमें अपनी आत्मा को दूसरी हर चीज से अधिक कीमती महत्वपूर्ण समझना चाहिए।


मन-आत्मा को बहुत ही विचलित करके रखता है। मन चंचल और शातिर है। वह आत्मा को अनेक तरह की मोह, माया, अहंकार की चीजों में फंसा के रखता है। हम अहंकार की बात करें। हम सोचते हैं कि हम संसार में इतने बड़े और ऊंचे हैं कि लोगों को हमारे बड़प्पन के बारे में पता चलना चाहिए। हम सोचते हैं कि लोगों को हमारे साथ-साथ होने की चाहत होनी चाहिए। हमें हमारे मन का और अधिक मुआवजा मिलना चाहिए और सतगुरु को खुद आकर हमारी सेवा के लिए हमारा धन्यवाद करना चाहिए। हमारे अंदर इतना ज्यादा अहंकार भरा हुआ है। पर जब रूहानियत की बारी आती है तो हम नम्रता की प्रतिमा बन जाते हैं और अत्यंत तुच्छ और गुणहीन बन जाते हैं। हम कहते हैं कि हम अपना बचाव और अपने मन के साथ लड़ाई कर सकने की योग्य नहीं है। हम कहते हैं,  "हे सतगुरु! तू ही यह काम कर दे। तू ही हमारी जगह भजन-सुमिरन करले।'' पर हम नम्रता के पुंज बन जाते हैं जबकि होना बिल्कुल इसके विपरीत होना चाहिए।


हमें मन को इन मायावी चीजों से दूर रख चाहिए। मन को भजन-सुमिरन में लगाने की कोशिश करना चाहिए। जितना हो सके मन को भजन में लगाने की कोशिश करें। अगर हम गौर करें तो पता चलता है कि मन मायावी चीजों का बहुत शौकीन है। लेकिन रूहानियत में संत महात्मा बताते हैं कि मायावी चीजें संत मार्ग में कष्ट दाई हैं। हमें चाहिए कि ज्यादा से-ज्यादा भजन-सुमिरन करें। उस परमात्मा का ख्याल करें और अपने निज धाम पहुंचे।


                    ||  राधास्वामी  ||

1 टिप्पणी:

संत मार्ग सिद्धांत की जानकारी के लिए पढ़ें

राधास्वामी जी

आप सभी को दिल से राधास्वामी जी